Vol. 9, Issue 2, Part C (2023)
भारत में समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व का अध्ययन
भारत में समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व का अध्ययन
Author(s)
आशा थुवाल, डॉ. सन्तोष कुमार शर्मा
Abstract
समावेशी शिक्षा अथवा समावेशन शिक्षा पृथक्करण अथवा अलगाव का विपरीतार्थक शब्द है जिसका अर्थ होता है बाहर रखना, मना करना या निष्कासन करना। समावेशी शिक्षा में सबको साथ लेकर सम्मिलित करते हुए उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बालको के बौद्धिक, संवेगात्मक एवं सृजनात्मक विकास के अतिरिक्त परस्पर सीखने-सिखाने तथा अभियोजन का एक अनूठा प्रयास है जो कठिन तो है लेकिन असम्भव नही। समावेशी शिक्षा मे अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मनुष्य द्वारा किसी व्यक्ति को शिक्षित करना सबसे बड़ी सेवा है इसलिये एक अध्यापक एक अच्छे समाज व राष्ट्र का निर्माता है। उसी के आधार पर एक राष्ट्र की सफलताओं व ऊँचाइयों को मापा जा सकता है। समावेशी शिक्षा के माध्यम से अयोग्य व विकलांग बच्चों के सरकार द्वारा तेयार किये गये क्रिया योजना को पहुंचाने का उत्तरदायित्व अध्यापकों का होता है। अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र मे समावेशी शिक्षा को मुख्य स्तंभ माने जाते है। समावेशी शिक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये योग्य व निपुण अध्यापकों की आवश्यकता पड़ती है शिक्षा के अतिरिक्त ये अयोग्य व विकलांग विद्यार्थियों की योग्यता का विकास करके उनके अपनी जिम्मेदारी के प्रति जागरूक कर सकते है। एक शोध के द्वारा यह सामने आया है कि विकलांग, अयोग्य, मानसिक तौर पर असंतुलित सुनने मे असक्षम बोलने मे असमर्थ अन्धे व सीखने मे अयोग्य छात्र सहयोगी समूह की तरह रोज दिनचर्या वाली कक्षा मे बैठे। यह उदेश्य केवल विशिष्ट अध्यापकों की मदद से पूरा हो सकता है समावेशी शिक्षा में अध्यापक योग्य व अयोग्य छात्रों को इकट्ठा पढ़ाता है। ऐसी शिक्षण प्रणाली में या वातावरण में स्थायी व अस्थायी अध्यापकों की मदद ली जाती है जो एक ही कक्षा में दोनों तरह के छात्रों को पढ़ाता है।
How to cite this article:
आशा थुवाल, डॉ. सन्तोष कुमार शर्मा. भारत में समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व का अध्ययन. Int J Appl Res 2023;9(2):168-171.