र्मुिस्लम समाज में उतार-चढाव का दौर हिंदू सामाजिक व्यवस्था से मेल खाता नजर आता है। यद्यपि मुस्लिम महिलाएं तुलनात्मक रूप से पारंपरिक बेड़ियो को तोेड़कर जिज्ञासा जगत में छिद्रान्वेषी रूप से सक्रिय भूमिका निभा रही है, लेकिन मुस्लिम समाज पर प्रस्तुत की गई व्याख्या से स्पष्ट है मुस्लिम स्त्रियों को स्वतंत्रता तथा समानता के अधिकारों से प्रायः वंचित ही रखा गया है। सामान्यतः सैद्धांतिक और व्यावहारिक धरातल में एकरूपता नहीं है। मुस्लिम स्त्रियों को शिक्षित बनाने में प्रयास अवश्य हुए हैं, परंतु कुल जनसंख्या में प्रतिशत अभी भी कम है उनकी आर्थिक स्वतंत्रता को सीमित करके पुरुषों पर निर्भर रहने के लिए विवश किया गया है। पुरुषों पर निर्भर रहने के कारण वे इसके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर पाती।
बहुसंख्यक मुस्लिम महिलाओं की मांग है, कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ में सुधार किए जाएं और कुरान में निहित अधिकारों तक उनकी पहुंच हो। मुस्लिम पारिवारिक कानून विख्ंाण्डित है। सरकार और परिवार दोनो की ओर से इसमें बदलाव लाने के लिए महत्वपूर्ण सुधार नहीं किये गये है। यद्यपि तीन तलाक पर संसद द्वारा पारित कानून से महिलाओं को चिंताजनक स्थिति से राहत अवश्य मिली है। इसके विपरीत आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम समाज में विवाह को भंग करने के लिए तीन तलाक का प्रयोग सीमित है और यह भी तर्कपूर्ण है कि अकेले तलाक का मुद्दा लैंगिक न्याय के मूल का गठन नहीं कर सकता, बल्कि मुस्लिम समुदाय और सरकार को मुस्लिम व्यक्तित्व विकास पर बल देना चाहिए। आधुनिक मुस्लिम महिला ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कई क्षेत्रों में मुस्लिम महिला सुधारों के जरिए सकारात्मक उपस्थिति दर्ज की है, जो कि प्रशंसनीय है।
अतः मुस्लिम महिलाओं के बारे में ऐसी किसी भी पूर्व धारणा मान्यताओं प्रथाओं का त्याग करना चाहिए जो महिलाओं की गरिमा का विरोध करती है। लैंगिंक समानता को सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक और नैतिक मानदंडों का विकास जरूरी है जिससे मानवीय मूल्यों की अवहेलना न की जा सके। लिंग की असमानता को समाप्त करना अकेले सरकार का कर्तव्य नहीं बल्कि समाज को पितृसत्तात्मक बेडियां तोड़नी होगी जिससे महिला अधिकारों का संवर्धन किया जा सके।
हजरत पैगम्बर मोहम्मद साहब ने ऐसी सभी प्रथाओं का त्याग किया जो महिला अधिकारों को सीमित करती थी। पैगम्बर पारिवारिक स्थिरता के समर्थक थे, और विवाह-विच्छेद को नगण्य रूप में में स्वीकार करते थे। इस्लाम में भी विवाह-विच्छेद को व्यापक रूप ना देकर परिस्थितिवश स्वीकार किया गया है क्योंकि अल्लाह ने हलाल शब्दों में सबसे ज्यादा नापसंद शब्द तलाक माना है।इम्तियाज अहमद ने भी अपनी पुस्तक में वर्णित मुस्लिम समाज का अध्ययन करके बताया कि मुसलमानों में तलाक की दर कम पाई जाती है पैगम्बर मोहम्मद साहब के समय में मुस्लिम समाज में लैंगिक समानता सुनिश्चित थी, उन्होंने महिलाओं को कई ऐसे अधिकार दिए, जो 19वीं, 20वीं शताब्दी में भी महिलाओं को प्राप्त नहीं हुए जैसे विवाहित महिलाओं को संपत्ति का अधिकार। पश्चिमी सभ्यताओं में महिलाएं अधिकारों से वंचित थी। मुस्लिम स्त्रियों को सामाजिक जीवन में अनेक अधिकार दिए गए हैं लेकिन वे इसके प्रयोग से वंचित होने के कारण समग्र क्षेत्रों में उनकी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।