Abstractभारतीय संस्कृति से ओतप्रोत धर्मप्रधान भारत के ऋषियों महर्षियों ने प्राचीन समाज को सुव्यवस्थित करने हेतु आश्रम चतुष्टय के सिद्धांत की कल्पना की है। और इसको चार काल में विभक्त किया गया है। और प्रत्येक काल की अवधि पचीस वर्ष मानी गई है।। यह चार विभाग ही आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुए आश्रम शब्द आ उपसर्ग पूर्वक श्रम् धातु से घञ् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ गुरुकुल और ऋषि-मुनियों का निवास स्थान भी है। किन्तु यहाँ पर आश्रम शब्द का अर्थ मनुष्य जीवन के चार पड़ाव ये चार आश्रम या पड़ाव हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास। प्राचीन भारत का प्रायः प्रत्येक व्यक्ति इन चारों आश्रमों में रुकते हुए अपनी लोकयात्रा को पूरी करता था। यह आश्रम व्यवस्था ही मनुष्य को सम्पूर्ण बनाकर उसे चरम लक्ष्य तक पहुँचाती थी। महाकवि कालिदास ने आश्रम व्यवस्था को अपनाना प्रशंसनीय मानते हुए ही अपने काव्यनायक रघुवंशियों के लिए अधोलिखित उद्द्वार अभिव्यक्त किए हैं-
शैशवेभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्द्धनिवृत्तीनां मोगेनान्ते तनुत्यजाम्
अर्थात् - शैशवावस्था में विद्या का अभ्यास करने वाले (ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले) युवावस्था में विषयों की इच्छा करने वाले (गृहस्थ का आचरण करने वाले) वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति धारण करने वाले (वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने वाले) तथा अन्त में योग से शरीर छोड़ देने वाले (सन्यास धारण करने वाले) रघुवंशियों का मैं वर्णन करता हूँ। अधोलिखित श्लोक भी आश्रम व्यवस्था की अनिवार्यता का उद्घोष करता है
आद्ये वयसि नाधीतम्, द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये न तपस्तस्म्, चतुर्थे किं करिष्यति।।
इन चार आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य है कि मनुष्य सामाजिक नियमों का पालन करते हुए अपनी संपूर्ण आयु को सुव्यवस्थित रूप से जिए। आश्रम शब्द की व्युत्पत्ति आ उपसर्ग पूर्वक श्रम् धातु से की जाती है, जिसका अर्थ है। निवास। यदि चारों आश्रमों के प्रमुख कर्तव्यों पर दृष्टिपात् किया जाए तो सहज ही समझ में आ जाता है कि ब्रह्मचर्य आश्रम में अध्यय नात्मक श्रम की अपेक्षा रहती है। गृहस्थ आश्रम में रचनात्मक श्रम आवश्यक है। तथा वानप्रस्थ में तपस्या एवं सन्यास आश्रम में योग साधना रूप श्रम किया जाता है। इनमें ब्रम्हचर्य से संबंधित मनुष्यों के कर्तव्यों का परिचय निम्नलिखित है।