Vol. 3, Issue 1, Part L (2017)
पाणिनीय एवं पाल्यकीर्ति शाकटायन के व्याकरण में कारक विवेचन
पाणिनीय एवं पाल्यकीर्ति शाकटायन के व्याकरण में कारक विवेचन
Author(s)
डाॅ॰ रामपाल
Abstract“क्रियां निर्वत्र्तयतीति क्रियानिर्वत्तकं कारकम्” अर्थात् क्रिया का जो निवत्र्तन तथा निर्वहण करे या जिसके बिना क्रिया का रहना कोई अर्थ नहीं रखता हो वही कारक कहलाता है। यद्यपि शब्दशास्त्र की दृष्टि से क्रिया की सर्वत्र मुख्यता द्योतित होती है। क्योंकि किसी भी कारक के मूल में क्रिया का ही अस्तित्व होता है “क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वम्” दूसरे निमित्तों के होते हुए भी जब तक क्रिया करने वाला कत्र्ता ही न होगा, तब तक क्रिया की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। दूसरे निमित्तों का व्यापार भी कत्र्ता के ही अधीन है, जब चाहे इस व्यापार को हटा सकता है, अतः मुख्य कारककत्र्ता ही है।
भाषाव्यवहार में भी पद का प्रयोग होता है; केवल प्रकृति अथवा प्रत्यय का नहीं- “न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या न च प्रत्ययः” (कैयट म.भा. प्रदीप, अध्याय-3, पृष्ठ 12) पाणिनीय मत में विभक्ति सिद्ध होने पर ही शब्द (प्रकृति) की पद संज्ञा है।
यहाँ पाल्यकीर्ति शाकटायन का पद के सन्दर्भ में चिन्तन एवं विश्लेषण इस तरह है- “सुङ्पदम्” (शा.व्या. 1.2.9) “सुघिति प्रथमैकवचनादारभ्य आ महिघो घकारेण प्रत्याहारः सुङन्तं पदसंज्ञं भवति।” अर्थात् शाकटायन के अनुसार सुङ् से तात्पर्य सुबन्त एवं तिङन्त दोनों से है।
पाल्यकीर्ति शाकटायन ने मौलिकता के लिए कारक प्रकरण में सूत्र शब्दावली भेद, वार्तिकों का स्वतंत्र सूत्ररूप में प्रयोग, वार्तिक तथा सूत्रों का एक सूत्र रूप में प्रयोग एवं नवीन प्रयोग करके भाषा जगत को एक दिशा प्रदान की है।
How to cite this article:
डाॅ॰ रामपाल. पाणिनीय एवं पाल्यकीर्ति शाकटायन के व्याकरण में कारक विवेचन. Int J Appl Res 2017;3(1):953-956.