Vol. 4, Issue 1, Part F (2018)
तुलसीदासजी कृत ‘दोहावली’ का कलात्मक वैषिष्टय
तुलसीदासजी कृत ‘दोहावली’ का कलात्मक वैषिष्टय
Author(s)
संगीता कुमारी झा
Abstractतुलसीदास मुख्यतः एक भक्त थे इसलिए उन्होंने न तो प्रत्यक्ष रूप से काव्य का शास्त्रीय विवेचन-विष्लेषण किया और न कवि के रूप को अपनी रचनाओं में प्रमुखता दी। ‘मानस’ में तो उन्होंने घोषणा ही कर दी है-‘‘कवित विवेक एक नहि मोरे’’ तथा ‘‘कवि न होऊँ नहि चातुर कहाबहुँ’’ यहाँ उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि ‘काव्य-विवेक’ और ‘काव्य-चातुरी से उनकी कविता भिन्न है। राम की यषोगाथा गाते हुए तुलसीदासजी ने प्रसंगवष काव्यादर्षों का निराकरण किया है। गोस्वामीजी ने काव्य में भावाभिव्यक्ति के समान ही कला-पक्ष को भी महत्व प्रदान किया है। पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने काव्य-रचना में कला-पक्ष को जानबूझ कर महत्व नहीं दिया, अपितु यह अनायास ही निःश्रित होता चला गया।
तुलसीदास एक समन्वयवादी कवि थे। उन्होंने जिस प्रकार भक्ति धर्म, दर्षन और सम्प्रदायिक मान्यताओं के क्षेत्र में समन्वय स्थापित किया, उसी प्रकार उन्होंने काव्य में भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष के सुन्दर समन्वय द्वारा काव्य-रचना को श्रेष्ठ आदर्ष प्रस्तुत किया।
किसी भी रचना के अभिव्यक्ति-पक्ष से संबंधित जिन विषेषताओं की चर्चा की जाती है, उन्हें समग्ररूप में अभिव्यक्ति-पक्ष या षिल्प-पक्ष या कला-पक्ष की संज्ञा दी जाती है। कला-पक्ष के अन्तर्गत् मुख्यतः वर्णन शैली, अलंकार, गुण, दोष छन्द भाषा आदि पर विचार किया जाता है। डाॅ0 उदयमानु सिंह कहते है-‘‘प्रति पाद्य बस्तु की आनन्द विद्याचिनी-विद्यायिनी अभिव्यंजना-षैली कला है। विभाव आदि का उचित संयोजन, व्यवस्थित वस्तु-विन्यास ध्वनि-वक्रोन्ति, गुण-वृति, अलंकार, चित्रात्मकता उपर्युक्त छन्द आदि कला-पक्ष की विषेषताएँ हैं।’’
How to cite this article:
संगीता कुमारी झा. तुलसीदासजी कृत ‘दोहावली’ का कलात्मक वैषिष्टय. Int J Appl Res 2018;4(1):524-526.