Vol. 8, Issue 6, Part A (2022)
बैंकिंग विनियमन में बासेल मानदण्डों की भूमिका
बैंकिंग विनियमन में बासेल मानदण्डों की भूमिका
Author(s)
प्रेम परिहार
Abstract
बासेल मानदण्डों का मुख्य लक्ष्य वित्तीय संस्थानों को अपनी देयताओं, ऋण चक्रों एवं व्यापारिक मंदी-तेजी से सुरक्षा मिल सके और इन परिस्थितियों से बचने के लिए पर्याप्त पूँजी आदि की व्यवस्था कर सके। इसमें मात्रात्मक संकेतक और गुणात्मक तत्व दोनों को शामिल किया जाता है। वर्ष 2008 में आर्थिक मंदी तथा अमेरिकी वित्तीय संस्थानों की दयनीय स्थिति के कारण उत्पन्न संकट से बचने के लिए बेसल-2 के मापदण्डों में सुधार की आवश्यकता महसूस की गई। इसके लिए 12 सितम्बर 2010 को बेसल में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक का मुख्य लक्ष्य वैश्विक वित्तीय संकट को ध्यान में रखते हुए आर्थिक व्यवस्था को वित्तीय साख एवं स्थिरता प्रदान करना था। इसके मानकों को सितम्बर 2010 से ही लागू कर दिया गया। बासेल-1 एवं 2 की तुलना में बासेल-3 अधिक कठोर एवं सख्त है। केन्द्रीय बैंक एवं वित्त मंत्रालय के नियंत्रण से ही देश के बैंकों की साख विश्व में अच्छी है। आज भी भारतीय बचत को महत्व प्रदान करते हैं। जिसके कारण बैंकों में पूँजी की पर्याप्तता बनी रहती है। जबकि वैश्विक दशाओं को यदि ध्यान में रखा जाए तो बैंकों के पास पूँजी का अभाव ही रहता है। भारत बेहतर स्थिति में है। बासेल-3 के मानदण्ड काफी कठोर एवं चुनौतीपूर्ण है। प्रस्तुत लेख में बासेल मानदण्डों के संदर्भ में देश की स्थिति के बारे में चर्चा की जाएगी।
How to cite this article:
प्रेम परिहार. बैंकिंग विनियमन में बासेल मानदण्डों की भूमिका. Int J Appl Res 2022;8(6):25-28.